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कविता

हाशिया

संतोष कुमार चतुर्वेदी


जब से आबाद हुई यह दुनिया
और लिखाई की शक्ल में
जब से होने लगी अक्षरों की बूँदाबाँदी
हाशिए की जमीन तैयार हुई
तभी से हमारे बीच
अब यह जानबूझ कर हुआ
या बस यूँ ही
छूट गई जगह हाशिए वाली
कहा नहीं जा सकता इस बारे में
कुछ भी भरोसे से
लेकिन जिस तरह छूट जाता है हमसे
हमेशा कुछ न कुछ जाने अनजाने
जिस तरह भूल जाते हैं हम अमूमन
कुछ न कुछ किसी बहाने
पहले पहल छूटा होगा हाशिया भी
दुनिया के पहले लेखक से
कुछ इसी तरह की
भूल गलती वाले प्रयोग से

अब ऐसा सायास हुआ हो या अनायास
हाशिए की वर्तनी के साथ ही
अक्षर पन्ना तभी लगा होगा इतना दीप्त
सुघड़ दिखा होगा अपनी पहलौठी में भी
उतना ही वह
जितना आज भी खिला खिला दिखता है
अक्षरों वाली पंक्तियों के साथ
भरेपूरेपन में हाशिया
हाशिए में भरापूरापन
कुछ इसी तरह तो
बनता आया है छंद जीवन का
कुछ इसी तरह तो
लयबद्ध चलती आ रही है प्रकृति
न जाने कब से

कभी कभी होते हुए भी
हम नहीं होते उस जगह पर
कभी कभी न होते हुए भी
हमारे होने की खुशबू से
तरबतर होती हैं जगहें

और अक्सर अपने ही समानांतर
बनाते चलते हैं हम हाशिया
जिसे देख नहीं पाते
अपनी नजरों के झरोखे से


2

एक सभ्यता द्वारा छोड़े गए हाशिए को
किसी जमाने में सजा सँवार देती है
कोई दूसरी सभ्यता
लेकिन कहीं कहीं तो
प्रतीक्षारत बैठे बदस्तूर आज भी
दिख जाते हैं हाशिए
किसी कूँची किसी रंग या फिर
किसी हाथ की उम्मीद में
कई परीक्षाओं में मैंने खुद पढ़ा यह दिशा निर्देश
'कृपया पर्याप्त हाशिया छोड़ कर ही लिखें'
बहुत बाद में जान पाया था यह राज
कि हाशिए ही सुरक्षित रखते थे
हमारे प्राप्तांकों को
परीक्षकों के हाथों से छीन कर
कापियाँ जाँचे जाने के वक्त
और इस तरह हमारे कामयाब होने में
अहम भूमिका रहती आई है हाशिए की
जैसे कि आज भी किसी न किसी रूप में
हुआ करती है

हमसे भूल गई बातों
चूक गए विचारों
और छूट गए शब्दों को
सही समय पर सही जगह दिलाने में
अक्सर काम आता है
यह हाशिया आज भी

हाशिए को दरकिनार कर
दरअसल जब भी लिखे गए शब्द
भरी गईं पंक्तियाँ
किसी हड़बड़ी में जब भी
बाइंडिग के बाद
लड़खड़ा गई पन्ने की शक्ल
अपठनीय हो गई
वाक्यों की सूरत

 


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